झर रहा
अगली सुबह का गीत
होठों से सभी के
टँके माथे पर
कई लम्हे बुझे
जलती सदी के
किसी स्वेटर की तरह
बुनकर
दिशाएँ खुल गई हैं
एक काले रंग में
सारी फिजाएँ
धुल गई हैं
कई चोटें
पीठ-गर्दन-माथ पर हैं
आदमी के
एक मैली शाम
कंधों पर
उदास-उदास मौसम
जल महल में
कैद होने को
हुए अभिशप्त
फिर हम
थरथराकर
छूटते हैं शब्द
होठों से नदी के